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Original Stories by Author (65): Section 377

This is a collection of Original Creation by Nilesh Mishra

कहानी 65: धारा 377

आज काफी दिनों बाद नौचन्दी एक्सप्रेस टाइम से चल रही थी। मैं फिर भी 100% Confidence में था कि ये लखनऊ आउटर पर रुक के अपना Late होने का कीर्तिमान कभी नही तोड़ेगी। स्लीपर कोच में हमेशा की तरह बिल्कुल भीड़ नही थी। मैं अपनी सीट पर पहुंचा तो पता चला एक बड़ी दाढ़ी वाले जनाब जो हालात से किसी भिखारी से कम नही लग रहे थे, वो हमारी सीट पे आराम फरमा रहे थे। ये मानव स्वभाव है कि यदि उसे ज्ञात हो जाए कि सामने वाला कमजोर है तो आत्मविश्वास 2 गुना तो अपने आप हो जाता है। कड़क आवाज में हमने सीट पर अपनी दावेदारी दिखाते हुए उसे अपनी सीट छोड़ने का आदेश दिया। वो हट के सामने वाली खाली सीट पे बैठ गया।

"रिजर्वेशन कराए हो ? कौन सी सीट है तुम्हारी या जनरल का टिकट ही लेके बैठ गए हो"
"टिकट....!"
उसके चेहरे पर उद्विग्नता साफ देखी जा सकती थी।
"हाँ टिकट.. बिना टिकट चढ़ा है बे तू, रुक अभी टीटी को बुलाता हूँ, फिर जाएगा जेल तू"
गरीबों और लाचारों को सताने का अपना ही एक आनंद होता है जो आपको और कहीं नही मिल सकता
"अरे नही बाबूजी, माफ कर दो! 30 साल बाद आज ही जेल से छूटा हूँ। अब फिर से नही"
उसके इस उत्तर को सुनकर मेरे दिल की धड़कन बढ़ गई। बाप रे ये तो जरूर कोई मर्डरर या रेपिस्ट रहा होगा। अब मेरा वही हाल था जिसे आधुनिक युग मे 'फटना' कहते हैं और आत्मविश्वास यकायक कम हो गया था। फिर भी जिज्ञासाओं के तूफान को शांत करने के लिए मेंने पूछ ही लिया - "30 साल.. किसका मर्डर किये थे?"
"अरे राम राम! बाबू जी हम किसी का मर्डर नही किए रहे। हम कमाए खातिर दिल्ली जाए रहे थे। राह में जीआरपी वाले मिल गए और पैसा मांगे लगे। हम भी गुस्सा में उनको गरिया दिए और ऊ लोगन हमको चरस गांजा रखे के आरोप में जेल भेज दिहिन।"
"अरे ऐसे कैसे, तुम्हे 24 घण्टे के अंदर मजिस्ट्रेट के सामने पेश करना चाहिए था, मुकदमा चलना चाहिए था और उस दौरान जमानत मिलनी चाहिए थी - ये सब Article 21 - जीवन और दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार के अंतर्गत आता है जो तुम्हारा मूल अधिकार है। क्या घर वालो ने तुम्हारे लिए वकील नही किया?"
मैने समस्त पढ़ाई लिखाई उस पर झाड़ दी थी।
लेकिन वो भी बड़े ही तसल्ली के साथ बोला - "बाबू जी लगता है आप सही से सुने नही। हम दिल्ली जा रहे थे कमाने । घर वालो को तो मालूमो न होइहे कि हम जियतो हई की नही।"
मैने फिर एक Investigator की तरह प्रश्न दागे क्योंकि ये बात मेरे गले से नही उतर रही थी - "अरे तुमसे किसी ने contact नही किया । हर साल हर जेल में Annual Inspection होते हैं , Free Legal Aid मिलती है उनको जो अपना मुकदमा नही लड़ सकते, इतने सारे NGO हैं आखिर इतनी बड़ी मशीनरी होने के बावजूद 30 साल कैसे लग गए तुमको निकलने में"
"बाबू जी हमारे जमाने मे फोन नही थे। होते तो भी हम गरीबो के पास शायद ही होता। ई सब जौन बड़ा भारी चीज आप बता दिए हैं , हमको नही पता। हम तो बस इतना जानते हैं कि एक बार जेल में जाने के बाद हम खाली एक नम्बर बन गया था। रोज गिनती होता था। कभी कभी कुछ लोग आता था इन्सपेक्शन वगैरह करने के लिए लेकिन हमलोगों को दूर से देख के अपना खर्चा पानी लेके चला जाता था। और बाकी सब तो तब होगा न जब कोई जानेगा कि हम अस्तित्व में है भी। बाबू जी सब क़ानून, संविधान, सरकार आप जैसा बड़ा लोगो के लिए है। हम गरीब खाली गिनती है। कौन देखने जाता है कि हम लोग कहाँ है कैसा है और है भी की नहीं। वो तो भला हो वो भलामानस नए जेलर का जो हमारा कागज पत्र देख कर हमको कोर्ट में पेश करवा के हमको रिहा करवा दिया भले से हमको मनना पड़ा कि हम ही चरस गांजा लिए था" - ये कहते कहते उसकी बरसों से रुकी रुलाई सामने आ गई और वो फफक फफक के रो पड़ा "गरीब के लिए किसी के पास समय नही है साहब" और यही दोहराने लगा । ऊंचाहार स्टेशन आ चुका था और इससे पहले कि मैं उसको कुछ कहता वो गाड़ी से उतर चुका था। इसी बीच नए यात्री चढ़ गए जिनमे कुछ युवकों और युवतियों का समूह था जो धारा 377 के ऊपर हंसी मजाक करते हुए इसे भारतीय न्यायपालिका और मूल अधिकारों की जीत बता रहे थे और बेहतरीन jokes पास कर रहे थे। लेकिन मेरा मन अशांत था और बार बार मन मे उसके यही बोल गूंज रहे थे "गरीब के लिए किसी के पास टाइम नही है साहब गरीब के लिये किसी के पास टाइम नही है"

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नीलेश मिश्रा

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