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Original Stories by Author (90): क्रांति

This is a collection of Original Creation by Nilesh Mishra



कहानी 90: क्रांति

"...और तब आप भूल जाते हैं कि आपके सामने कौन है। आपको इस बात से फर्क पड़ना बंद हो जाता है कि आगे क्या होगा या अगले पल क्या होने वाला है। अचानक आपका निरन्तर लाभ हानि की गणना करने में तल्लीन मस्तिष्क इस काम को बंद कर देता है। आप अपने दिल की बढ़ती धुकधुकी को महसूस कर सकते हैं। रोंगटे खड़े होना अब सिर्फ मुहावरा नही रह जाता। आपकी आंखों के क्रोध और उन्माद को कोई भी पढ़ सकता है। आपकी भौहें तन चुकी होती हैं, माथे पर बल पड़ना शुरू हो चुका होता है। माँ बाप की शक्ल या प्रेमिका की स्मृतियां आपकी उस भावना से बहुत अंदर दब चुकी होती हैं जिसने आपको अभिप्रेत कर रखा है। जीवन के मूल्य आपके लिए एकाएक बदल चुके होते हैं। आप समझ चुके होते हैं कि केवल सांस लेना, पेट भरना और सो जाना ही जीवन नही है। जो आप करने जा रहे हैं वो किसके लिए है - उस उद्देश्य के पीछे कौन से चेहरे हैं - क्या वो समझ पाएंगे कि ये आपने क्यों किया और इसे समझने के बाद भी क्या वो आपको वो इज्जत बख्शेंगे - ये अब आपके लिए कोई मायने नही रखता। निज स्वार्थ के अलावा कुछ औऱ करने का ख्याल जरूर जीवन के किसी न किसी मोड़ पे मन मे जरूर आया होगा पर खुद के कम्फर्ट ज़ोन से निकलने का साहस आप आज जाकर जुटा पॉये हैं। ऐसा नही था कि आप गरीब थे या आपके साथ बहुत बुरा हुआ - लेकिन आपने जो देखा जो महसूस किया वो हांड कंपाने वाला था। आप सिस्टम के खोलखलेपन से रूबरू हो चुके हैं। आप को ज्ञात हो चुका है कि समाज, प्रशासन और व्यवस्था के सभी अंग सिर्फ सामर्थ्यवान स्वार्थियों की गाड़ियों के ईंधन मात्र हैं। आप इस व्यवस्था से दूर अपने ज्ञान कौशल के बल पर पश्चिमी देशों में सेटल हो सकते थे या इसी देश मे  कहीं आलीशान घर के बरामदे में काफी की चुस्कियां का आनंद ले सकते थे। लेकिन आपने वो चुना जो शायद आपसे आपकी सांसे छीन ले। अब आपको पता है कि आप जो करने जा रहे हैं वो शायद कोई क्रांति नहीं ले आएगा। व्यवस्था से जंग में व्यवस्था का पलड़ा भारी पड़ जाएगा। इतिहास से आपका नामोनिशान मिट जाएगा। पर वो तो वैसे भी मिटना ही है तो क्यों न कुछ कर के ही जाया जाए जो नजीर बने व्यवस्था के आततइयो के लिए और उनके लिए भी जो व्यवस्था से हार मान चुके हैं।"
इन्ही विचारों से गुंजायमान मन और स्वनिर्मित विशेष डिवाइस को लेकर डॉ रेड्डी चल दिये उन कामों को अंजाम देने जो शायद कुछ दिनों बाद अखबार की सुर्खियों से गायब हो जाएंगी पर अब उनके चेहरे पर अजीब सी शांति थी। शायद उन्हें जीवन को सार्थक सिद्ध करने का मंत्र मिल चुका था या वो अनुभव जिसे बचपन में उन्होंने क्रांतिकारियों की कहानियां पढ़ते समय सिर्फ पढा था।

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नीलेश मिश्रा







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