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Original Stories by Author (21-25)



This is a collection of Original Creation by Nilesh Mishra

कहानी 21:
मियां महबूब एक अत्यंत सज्जन युवा हुआ करते थे जब तक उनका नाम हाई स्कूल मार्कशीट में एक चपरासी को 100 रुपये न देने के कारण मयंक मिश्रा से मियां महबूब नही हो गया। 2-3 बार तो गलतफहमी में NIA वाले भी उन्हें पूछताछ के लिए उठवा चुके थे। तभी से उन्हें चपरासी कौम से ही नफरत हो गई थी और इसी क्रम में काफी कठिन परिश्रम के बाद और इंटरव्यूज में काफी जिल्लतें झेलने के बाद महबूब साहब किसी विभाग में गजटेड बाबू बन गए। अलग से चैम्बर मिला। 2 चपरासी भी मिले जिनमें एक 56 साल के छठवी फैल वयोवृद्ध काका थे तो दूसरा 27 साल का पोस्ट ग्रेजुएट गबरू जवान पप्पू। अब महबूब साहब को मौका तो मिल ही गया था। पप्पू को पानी लाने का फरमान सुनाया। पप्पू भैया आंखे तरेरते हुए बोल दिए "पानी लाना चपरासी का काम नही है" । महबूब साहब को गुस्सा तो बहुत आई, पर करते भी क्या। काका को 3 घंटा लेट आने पर टोका तो काका भी सुना दिए कि "बिटुवा तोहार जिनना नौकरी न भया ते हम उनने ज्यादा तो छुट्टी ले लिया" । महबूब साहब को गुस्सा तो बहुत आया, लेकिन सबक सिखाने के उद्देश्य से बॉयोमेट्रिक लगवा ली। अगले दिन बीओमेट्रिक में किसी ने परकार से छेद करके खराब कर दिया। पप्पू को कुछ लिखने या माइक्रोसॉफ्ट वर्ड पे टाइप करने को बोला तो टका सा जवाब पा गए कि ये चपरासी का काम नही है। महबूब साहब के साले साहब ओफिस मिलने आये तो चाय लाने को बोलने पर फिर जवाब पा गए ये चपरासी का काम नही। झल्लाकर पूछे "तो चपरासी का काम क्या है" और जवाब मिला कि "ये तो आपको पता होगा"। खैर दुनिया की सारी बेज्जती एक तरफ और साले के सामने घातक। दोनो का Violation of Conduct में explanation काल किया। अगले दिन explanation सहित दोनो तो नही आए अलबत्ता सीनियर अधिकारी जरूर आ गए और ultimatum देते हुए गए कि पप्पू विधायक जी का दूर का रिश्तेदार है , अगली बार श्रीनगर ट्रांसफर होगा। इधर यूनियन वाले आ के धमका गए कि काका को कुछ कहा तो तालाबंदी कि जाएगी। अगले दिन अपने को काफी नियंत्रित कर महबूब साहब ने पप्पू और काका को कुछ फ़ाइल किसी दूसरे कक्ष में रिसीव कराने का काम सौंपा। अगले दिन साहब पर उन फ़ाइलों से कुछ महत्वपूर्ण कागजात गायब होने के आरोप में इन्क्वायरी बैठ गई और साहब ससपेंड हो गए। तमाम भागदौड़ और अनुभवी पुरुषो से सलाह के बाद साहब ने पप्पू और काका को 100-100 रुपये देकर कागज हासिल किए औऱ अपनी नौकरी बचाई।
कल जनाब अपने मे ही बड़बड़ाते हुए मिले
"काश उस दिन 100 रुपये दे ही दिए होते..."
--नीलेश मिश्रा
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कहानी 22:
यादव जी एक मध्यम वर्गीय परिवार के लड़के थे जिनका बचपन से सपना था इंजीनियर बनने का। वक्त का खेल देखिये की 11 वी करने के दौरान ही एंजेल प्रिया नामक कन्या से यादव जी को लगाव हो गया और कन्या के इस कथन पर की "इंजीनयरिंग तो बहुत लोग करते है, दम हो तो BHU से B.Sc करके दिखाओ" के चक्कर में यादव जी ने ठान ही लिया यही करने का और B.Sc ही नही गणित में M.Sc में गोल्ड मैडल भी हासिल किए क्योंकि स्नातक के दौरान जनाब की गणित में कुछ ज्यादा ही गहरी रुचि हो गई थी। इधर एंजेल प्रिया ने बेल्जियम की किसी नामी कम्पनी के इंजीनियर को अपना जीवन साथी बना लिया। क्योंकि उसके कथनानुसार यादव जी मे वो बात अब नही रही थी। दुख तो बहुत हुआ लेकिन यादव जी भी आगे पढ़ के प्रोफेसर बनने का मूड बना लिए की तभी उनकी जिंदगी में एंट्री हुई खालिद मियां की जो पिछले 3 साल से SSC में हाथ आजमा रहै थे। खालिद मियां का कहना था कि बचुआ प्रोफेसर में बहुत जुगाड़ चलता है और बन भी गए तो कौनो इज्जत तो वैसे भी नही करेगा । आजकल के लौंडे तो वैसे ही पीटते पाटते चलते है, तुम गुरु हो गणित के उस्ताद , आओ साथ मे SSC देते है, इनकम टैक्स इंस्पेक्टर बनेंगे और फिर खूब भौकाल मारेंगे। यादव जी को बात जँच गई। फिर लाइन चेंज कर लिए। ले लिए एडमिसन नामी गिरामी कोचिंग मे। 1साल बीत गया इसी पशोपेश में की कोई गलती तो नही कर दिए । दूसरे साल में पेपर cancel हो गया और तीसरे साल में कट ऑफ ज्यादा हाई चली गई। इधर खालिद मियां की उम्र निकल गई तो PCS की तैयारी में जुट गए और यादव जी को भी तंज कसते हुए की "अमा इतने विद्वान होकर भी चिन्दी सा इम्तिहान न निकाल सके ", अपने रंग में रंगने में जुट गए। यादव जी रंग भी जाते की तभी उनकी लाइफ में एंट्री हुई मिश्रा जी की जिनके यहां दोनो किराये पे रहने आये थे। मिश्रा जी 28 साल के रिटायर्ड सॉफ्टवेयर इंजीनयर थे जिनको गूगल बाबा की मेहरबानी से $10000 का चेक हर महीने मिलता रहता था और जो आजकल अपने घर के पीछे खाली जमीन पर खुद के किसी Automated Vertical Farming नाम की किसी चीज पे खुराफात कर रहे थे। मिश्रा जी की सलाह पे यादव जी ने गणित की परास्नातक डीग्री पर आधारित कुछ इम्तिहान दिए और कालांतर में नासा में यादव जी का बतौर रिसर्च स्कॉलर चयन हो गया। अखबार वगरह के माध्यम से बात फैली तो वही एंजेल प्रिया और खालिद मियां को कहते हुए सुना गया "भैया हमे पता था ये बंदा एक दिन कुछ बड़ा करेगा"।
शिक्षा- एंजेल प्रिया या खालिद मियां के चक्कर मे न पड़ें और मिश्रा जी की सुने।
(कहानी सत्य घटनाओ से प्रेरित किन्तु काल्पनिक और सांकेतिक है)
-नीलेश मिश्रा
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कहानी 23:
पाण्डेय जी की कम उम्र मे नई नई नौकरी लगी थी । लोगो से थोड़ा दूरी बना के रखते थे खासतौर पर पंडितो से और हर बार पूछने पर अँग्रेजी का एक ही मुहावरा दोहराते थे "There is no free lunch"। खैर कार्य करने के दौरान ही पाण्डेय जी मौर्या जी के संपर्क मे आए । सुबह शाम दुआ सलाम, चाय खुद के पैसे से पिलाना, रोज लईया चना । पाण्डेय जी को पहले तो कुछ अटपटा लगा लेकिन सारी कैलकुलेशन करने के बाद भी कोई स्वार्थ नहीं नजर आया तो उन्होने दोस्ती पक्की करना ही उचित समझा । 2 महीने तक तो सब बढ़िया चला । अचानक मौर्या जी एक दिन असमय पाण्डेय जी के पास पहुँच गए और विनती करने लगे की भाई बहुत मुसीबत मे फंस गया हूँ, एक कोर्स मे एडमिशन लिया था और बैंक से लोन अपलाई किया था, बैंक वालों ने आज डिमांड ड्राफ्ट देने को कहा था लेकिन मैनेजर छुट्टी पे चला गया है और आज ही लास्ट डेट है फीस जमा करने की। हो सके तो बीस हजार रुपए उधार देदो । मैनेजर के साइन होते ही मेरा डिमांड ड्राफ्ट मुझे मिल जाएगा और मै तुम्हारा पैसा चुका दूंगा। पाण्डेय जी के तो होश फाख्ता हो गए भई हो भी क्यू न, नोकिया 1100 का मोबाइल भी किश्तों मे खरीदने वाले पाण्डेय जी से इतने रुपए उधारी जो मांगी गई थी । अब चाय पानी तो मौर्या जी की पी ही थी और साथ ही लाइया का नमक भी खून मे गया था । काफी झिझक के बाद उन्होने अपने दूसरे मित्र खान साहब से उधार लेकर मौर्या जी को रुपए दे दिये । 3 महीने बीत गए , न मौर्या जी ने पैसे देने का जिक्र किया न पाण्डेय जी की हिम्मत पड़ी मांगने की, आखिर दोस्ती कैसे खराब की जाए । अब चूंकि खान साहब का तो काम ही यही था उधार देना और तकादा करना तो पाण्डेय जी का भी सब्र जवाब दिया और एक दिन मौर्या जी से बोल पड़े "अरे भैया आपके ड्राफ्ट पर साइन नहीं हुआ क्या अभी तक।" मौर्या जी आग बबूला हो उठे "क्या यार, आज मुसीबत मे हूँ, बुरे दिन चल रहे है, पड़ोस के चाचा के दामाद की तबीयत मे सारा पैसा जा रहा है और तुम इधर अपने रुपए मांगने के पीछे पड़े हो।" पाण्डेय जी कुछ नहीं कहे। 1 साल बीत गए । खान की भाषा की तल्खी बढ्ने लगी । पाण्डेय जी अभी भी इसी सोच मे थे की इधर से मिले तो उधर चुकाया जाए। फिर मौर्या जी को पकड़े। मौर्या जी ने तपाक से बोला "अकाउंट नंबर दीजिये अभी डलवाते है ।" पाण्डेय जी ने दे दिया । फिर 6 महीने बीत गए अकाउंट मे पैसे तो नहीं आए अलबत्ता मौर्या जी कमाने के लिए मुंबई अलग निकल गए । पाण्डेय जी ने खान साहब का पैसा अपने पास से चुका दिया ।
खान साहब ने फरमाया "क्यूँ मियां सरकारी नौकरी है, फिर भी इतना समय कैसे लगा दिये अदनी सी रकम चुकाने मे ।" पाण्डेय जी ने सारा हाल कह सुनाया।
खान साहब ने चुटकी लेते हुए कहा "क्यू मियां परिवार मे कोई गुंडा या नेतागिरी वाला या पुलिस मे है ?"
पाण्डेय जी - "नहीं"
खान साहब (हँसते हुए)- "तब तो मियां भूल जाओ रकम"।
5 साल बीत गए । पाण्डेय जी एक से दो हो गए और पंडितो से मेल जोल बढ्ने का डर भी मन से निकल गया । इसी बीच कोई द्विवेदी जी की एंट्री हुई इनकी लाइफ मे। वही चाय , दुआ सलाम और लईया चना के दौर के बाद एक दिन अचानक एक लाख रुपए की रकम कोई करुणापूर्ण कारण बताते हुए मांगा गया । पाण्डेय जी ने मौर्या जी का उदाहरण देते हुए पल्ला झाड लिया ।
अभी खान साहब बता रहे थे की आज ही पाण्डेय जी ने मौर्या जी को whatsapp पर थैंक यू लिख के भेजा है की "आज आपके बीस हजार के चक्कर मे मेरे एक लाख बच गए "
--नीलेश मिश्रा
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कहानी 24:
1960 के दशक की बात है। अजय बाबू पुलिस महानिदेशालय में बाबू हुआ करते थे। एक दिन अजय बाबू अपने मित्रमंडली के साथ ऑफिस में किसी बात पे ठहाके लगा रहे थे की तभी डीआईजी साहब आ गए। सब खामोश।लेकिन अजय बाबू के बहुत कोशिश के बाद भी हंसी निकल गई। डीआईजी साहब को बात नागवार गुजरी । साला एक अदने से बाबू की ये हिम्मत की मेरे सामने हंसे। "बहुत दांत दिखा रहे हो, साले ऐसा घूसा पड़ेगा की दोनों दाँत निकल जाएंगे।" अजय बाबू अपमान का घूँट पी के रह गए।
कालान्तर में अजय बाबू को उस सेक्शन में कार्य करने का भी मौका मिला जहाँ सभी कर्मचारियों की पर्सनल फाइल रखी जाती थी। तब के दौर में न आधार था न रंगीन फोटो। तब हुलिया चला करता था। अजय बाबू ने धीरे से मौका पाकर DIG साहब के हुलिए में फेर बदल कर दी। 10 साल बाद DIG साहब बहुत बड़े अधिकारी होके रिटायर हुए और पेंशन के कागज बनवाने पहुंचे। कुछ समस्या के कारण approve नही हुआ। पूंछने पे पता चला उनके हुलिया में लिखा है कि उनके आगे के दो दांत गायब है। एड़ी चोटी का जोर लगा दिए। UPSC से लेकर कोर्ट तक सब जगह गये , परिणाम शून्य। अंततः दांत निकलवाये तब जा कर पेंशन grant हुई। पेंशन लेने दफ्तर गये तो अजय बाबू मिल गए। कुटिल मुस्कान देते हुए कहने लगे "क्यों साहब आप तो हमारे दांत नही तोड़ पाए, हम जरूर तोड़ दिए।" और ये कहते हुए अपने मित्र विक्रम के साथ निकल गए।
(काल्पनिक)

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कहानी 25:
किसी डिपार्टमेंट में एक यूनियन हुआ करती थी, नेतामल जिसके अध्यक्ष थे । नेतामल अधिकारियो के पसंदीदा नेता थे क्योंकि जनाब की फ्रेंडलिस्ट में अधिकारी mutual फ्रेंड थे और कर्मचारी फॉलोवर्स । नेतामल जी के अध्यक्ष पद रहते हुए जो कीर्तिमान स्थापित हुए उनमे से कुछ यूँ थे- सभी कर्मचारियों को नव वर्ष का कैलेंडर प्राप्त करवाना, खिचड़ी की छुट्टी declare कराना, सातवे पे कमीशन में 2 रूपये की वृद्धि करवाना, फिटमेंट फैक्टर 2.57 से 2.570000 करवाना, अप्रैल में सामूहिक हड़ताल का प्रस्ताव रख के एक दिन दिन पहले विड्राल, income टैक्स का स्लैब रेट में बचत की सीमा में 100 रूपये की छूट इत्यादि। कर्मचारियों की बाकि समस्याओं के निवारण हेतु इनका यही मत था कि ज्यादा सुविधाएं कर्मचारियो को देंने से सरकार को लगेगा कि ज्यादा लोग भर्ती हो गए है तो रिक्रूटमेंट होगा नही और बेरोजगारी बढ़ने से GDP और विकास दर कम होगी। तब 23-24 साल के अत्यंत प्रतिभाशाली श्रीमान क्रांतिवीर की विभाग में एंट्री हुई और कर्मचारियों की समस्याओं को खुल के रखने की कला में पारंगत होने के कारण अत्यन्त लघु समयांतराल में वे यूनियन के नए अध्यक्ष बन गए। अधिकारियो के AC, Tour और Five Star meeting के बजट को कर्मचारियो के कार्यस्थल के Infrastructure development में लगवाने जैसे कार्यो को करने के कारण कर्मचारियो के पसंदीदा चरित्र बन गए लेकिन अधिकारियो की आंख की किरकिरी। कालान्तर में श्रीमान क्रांतिवीर को अपने अजेय होने का गुमान हो गया और कर्मचारी हित के मुद्दे पे Top लेवल से सीधे टक्कर लेने लगे। एक दिन पता चला कि नशा उन्मूलन विभाग वालो ने उनकी सायकिल के गद्दी से गांजा बरामद कर लिया है और श्रीमान क्रांतिवीर NDPS Act में श्रीकृष्ण की जन्मस्थली में शिफ्ट कर दिए गए है। सभी कर्मचारी अपने दैनिक कार्यो में व्यस्त हो गए जैसे कुछ हुआ ही नही। कोई मिलने नही गया क्योंकि साइकिल, मोटर सायकल और कारें सभी के पास थी।
सुना है श्रीमान नेतामल फिर से अध्यक्ष चुन लिए गए है।
--नीलेश मिश्रा
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