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Original Stories By Author (92) : आखिरी हिसाब

This is a collection of Original Creation by Nilesh Mishra

कहानी 92: आखिरी हिसाब

वो अक्टूबर था या नवंबर कुछ ढंग से याद नहीं है अब। कई बार की तरह उस दिन भी मै डबल ड्यूटी मे था। अब भाई लोग छुट्टी मारेंगे तो किसी न किसी को तो
काम करना ही था। हिसाब मिलाते मिलाते रात के 8 कब बज गए, ये तभी ज्ञात हुआ जब धर्मपत्नी जी का फोन आया।

"आज भी लेट आओगे क्या" 
"बस बस थोड़ी ही देर मे निकल रहा हूँ।"
"तुम्हारा ये राग मै पिछले दो सालों से सुन रही हूँ। तुम सच मे सरकारी नौकरी करते हो या झूठ बोल के शादी किए थे। जल्दी आओ खाना बन चुका है।" - और ये
कह कर मैडम ने फोन रख दिया। वैसे तो नौकरी सही ही चल रही थी लेकिन जब विभाग मे modernization के नाम पर नया सॉफ्टवेयर
implement हुआ, तो उसके प्रथम भुक्तभोगी हम नौजवान लोग ही बने। शायद जिन कंपनियों को इस काम का ठेका दिया गया था वो बड़े लोगों के दामाद रहे होंगे, इसलिए सुई से जहाज बनाने तक का सारा जिम्मा हम ही लोगों पर थोप दिया गया। इतिहास साक्षी है भाईसाहब हम लोगों ने दिन रात एक कर दिया कि नए ऊंट के बिदकने से पब्लिक का कोई काम न रुके! विभाग के इज्जत का सवाल जो था। नाईट शिफ्ट, Long Sitting Hours, बे टाइम खाना और सोना - इन सबने हमारे शरीर की सारी जवानी चूस ली। Excercise, Walk और योग अब सिर्फ रामदेव बाबा के शो तक ही सिमट कर रह गए थे। लेकिन यही सोच कर कि चलो आज थोड़ी ज्यादा मेहनत कर लेते हैं, बाद में आराम हो जाएगा, हम लगे रहे, किंतु वो 'बाद' का आराम वाला पल कभी नही आ पाया।
"चलो हिसाब मिल गया- अब जल्दी जल्दी दुकान बढ़ाओ, निकला जाए" - घड़ी पर नजर गई तो 8:45 हो रहे थे। मैंने मोटरसाइकिल स्टार्ट की और शीघ्रातिशीघ्र घर पहुंच गया। मैडम हमारी ही बांट जोह रही थी। हमने भी उन्हें मनाने वाली स्माइल दी , कान पकड़ा और उन्हें इशारों में वादा किया कि बस ये आज का आखिरी था अब नही लेट होऊंगा। मैडम भी आंखों ही आंखों में "देखते हैं" कह के किचन की तरफ चली गईं। मैं घरेलू कपड़े पहन के हाथ मुहँ धो के सोफे पर बैठ गया और टीवी पर न्यूज लगाई। तभी अचानक मुझे उलझन होने लगी। फिर लगा कि जैसे अचानक ऑक्सीजन का लेवल कम हो गया हो । मुझे सांस लेने में तकलीफ होने लगी। मैंने पुरजोर कोशिश की अपनी धर्मपत्नी को आवाज लगाने की लेकिन आवाज जैसे गले से बाहर निकलना ही नही चाह रही थी। माथे पर पसीना आने लगा। मेरे हाथ पैर की नसें अकड़ने लगीं
मैं अपनी छाती पर असहनीय दर्द महसूस कर रहा था। अचानक मैं गिर पड़ा। मेरा दर्द अचानक से गायब होने लगा। मैं श्रीमतीं जी को दौड़कर अपनी ओर आते हुए देख रहा था। फिर धीरे धीरे मेरी आँखों के सामने अंधेरा छाने लगा। अब सब कुछ शांत था। मुझे कुछ भी महसूस नही हो रहा था। शायद मैं सो रहा था या जग रहा था पर सपने में। कुछ देर बाद मैंने सफेद चादर में खुद को देखा। सब अगल बगल रो रहे थे। ये सपना इतना जीवंत था कि मुझे एकदम असली ही लग रहा था। मैं सबको छूना चाह रहा था पर मैं नही कर पा रहा था। क्या ये सपना था या वास्तव में मैं मृत हो चुका था! दोनों ही स्थितियों में ये एक 32 वर्षीय नौजवान के लिए यह बहुत भयावह था। अपनी उदास पत्नी को रोता देख मैं जागने का भरसक प्रयास कर रहा था पर पुनः उठ पाना मेरे लिए शायद सम्भव नही था। शायद मैं अब कभी टाइम पर घर आने का वादा नही निभा पाऊंगा। शायद वो मेरा आखिरी हिसाब था।
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नीलेश मिश्रा






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